गाँव और बदलता वक़्त


मैं मेरा गाँव मेरी दुनिया के मिशन-मालवा प्रोग्राम में एक fellow हूँ. लोगों को जानने और यहाँ के culture को समझने के लिए मैंने गाँव में कुछ समय बिताया. गाँव के माहौल में एक बात सबसे ज्यादा क़रीब रही वह यह कि गाँव में लोगों के साथ connection build करने के लिए ज्यादा समय नहीं लगा. वहाँ मुझे एक अपनापन महसूस हुआ और मुझे ऐसा लगा जैसे मैं अपने ही गाँव में हूँ.


मैं गाँव की महिलाओं और लड़कियों से बातचीत करना चाहती थी, और जब यह हुआ तो मैं उनके रहन-सहन के अंदाज़ से काफी हैरान और अचंभित हुई. गाँव में कुछ महिलाएँ ऐसी भी हैं जिन्होंने यहाँ के माहौल की रूढ़ियों या रीति-रिवाज़ों को अपने तरीकों से परे हटाकर जीने का रास्ता चुन लिया है. उनमें से कुछ कामकाजी हैं तो कुछ ग्रहिणी. वे कहती हैं कि अगर हम जागरूक हैं तो कुछ भी किया जा सकता है; बग़ैर जागरूकता के कुछ करना लगभग असंभव है. गाँव में एक तरफ रीति-रिवाज़ों और बन्धनों को सबसे ऊपर मानने वाली महिलाएँ भी हैं और उनसे अपने तरीकों से छुटकारा पाती महिलाएँ भी.


लड़कियों के साथ मेरा समय काफी अर्थपूर्ण रहा. उनके साथ बातचीत में जाना कि शिक्षा को लेकर आज भी कई उलझनें हैं और उनकी वजह से बहुत सी लडकियाँ 8 वीं कक्षा से आगे पढ़ नहीं पाती हैं. गाँव आज भी अपने रिवाज़ों को सच और सक्षम मानता है कि वह वहाँ के लोगों को सुरक्षित ही रखेगा. इसका असर वहाँ के तौर-तरीकों में देखा जा सकता है; एक तरफ जहाँ छोटे लड़के और युवा तमाम जगहों पर बतियाते या घूमते दीखते हैं वहीँ लड़कियों को इस तरह देखना मात्र एक कल्पना ही है. लोगों के मन में अब भी उनके प्रति असुरक्षा का भाव है, जिसके चलते वे उन्हें बाहर कहीं भेजने या उच्च शिक्षा के लिए शहर भेजने में हिचकिचाते हैं. इस बीच कई लडकियाँ अपने parents में विश्वास और सुरक्षा का भाव पैदा करते हुए आगे पढ़ने के लिए गाँव से बाहर निकल रही हैं.


मैं गाँव में अपने समय के दौरान वहाँ के लोगों, ख़ुशनुमा माहौल, खेती और खान-पान की शैली में काफी घुलमिल पायी और एक अच्छा जुड़ाव बना पाई, अपनी इस छोटी सी यात्रा के दौरान.


- कोमल, मिशन मालवा Fellow, MGMD

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